दिसलि पुनरपी गुप्त जाहली
दिसलि पुनरपी गुप्त जाहली प्रिया सुभद्रा घोर वनीं ।
येथें सुंदरि कैशी आली हेंचि कळेना मज अजुनी ॥
माझ्या वेषा खरें मानुनी हलधरही लागत भजनीं ।
त्रिकालज्ञ परि मोह पावले कैसे न कळे गर्गमुनी ।
कपटी कृष्णाचीही बुद्धी गेली कैशी ती भुलुनी ।
या सर्वांचा विचार करितां जातों मूढचि होवोनी ॥
येथें सुंदरि कैशी आली हेंचि कळेना मज अजुनी ॥
माझ्या वेषा खरें मानुनी हलधरही लागत भजनीं ।
त्रिकालज्ञ परि मोह पावले कैसे न कळे गर्गमुनी ।
कपटी कृष्णाचीही बुद्धी गेली कैशी ती भुलुनी ।
या सर्वांचा विचार करितां जातों मूढचि होवोनी ॥
गीत | - | अण्णासाहेब किर्लोस्कर |
संगीत | - | अण्णासाहेब किर्लोस्कर |
स्वर | - | |
नाटक | - | संगीत सौभद्र |
राग | - | झिंझोटी |
ताल | - | धुमाळी |
गीत प्रकार | - | नमन नटवरा |