मनींचे मनिंच राहिले आंत
बोलत बोलत उगीच कांहितरि
जरी उलटली रात
पलटली आता होत प्रभात
मनींचे मनिंच राहिले आंत
चुकवित दृष्टिस दृष्टि राहिली
ओळख काळोखांत
मिसळुनि जात आता सकळांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
ओठांवरुनी आशय फिरला परत
पुन्हा हृदयांत
घुटमळे जो आता शब्दांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
भुलवित निजपण तरीही दुजेपण
उरवित एकान्तात
विसर ज्याचा पडतो जगतांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
जरी उलटली रात
पलटली आता होत प्रभात
मनींचे मनिंच राहिले आंत
चुकवित दृष्टिस दृष्टि राहिली
ओळख काळोखांत
मिसळुनि जात आता सकळांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
ओठांवरुनी आशय फिरला परत
पुन्हा हृदयांत
घुटमळे जो आता शब्दांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
भुलवित निजपण तरीही दुजेपण
उरवित एकान्तात
विसर ज्याचा पडतो जगतांत
मनींचे मनिंच राहिले आंत
गीत | - | कवी अनिल |
संगीत | - | सुधीर मोघे |
स्वर | - | रवींद्र साठे, विभावरी आपटे-जोशी |
गीत प्रकार | - | भावगीत, युगुलगीत, मना तुझे मनोगत |
प्रभात | - | पहाट. |