सखि मुखचंद्र भ्रांत
सखि मुखचंद्र भ्रांत न करो मनासी ।
खर पाप तेंही वचनांहि वमाया ॥
कुवचा विधाता शिकवील कैसा ।
विधुकिरणिं तमभाव होईल कधी काय ॥
खर पाप तेंही वचनांहि वमाया ॥
कुवचा विधाता शिकवील कैसा ।
विधुकिरणिं तमभाव होईल कधी काय ॥
गीत | - | न. ग. कमतनूरकर |
संगीत | - | वझेबुवा |
स्वर | - | बापू पेंढारकर |
नाटक | - | श्री |
गीत प्रकार | - | नाट्यसंगीत |
विधु | - | चंद्र. |